बधाई सुप्रीम कोर्ट लेकिन क्रिकेट ही क्यों….?

गोविन्द चतुर्वेदी

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा को बधाई। भारतीय क्रिकेट की दशा और दिशा सुधारने के उनके प्रयासों की जितनी तारीफ की जाए कम है। सराहना का हकदार हमारा सुप्रीम कोर्ट भी कम नहीं है जिसने लोढ़ा समिति की ज्यादातर सिफारिशों को लागू करने का फैसला सुनाया। फैसले के साथ ही जो एक और बड़ा काम सर्वोच्च न्यायालय ने किया वह यह कि न केवल इसे लागू करने के लिए छह महीने की समय सीमा दी बल्कि जस्टिस लोढ़ा को ही यह देखने का जिम्मा भी दे दिया कि वह फैसले की भावना में ही लागू हो। खेल, दुनिया के हर देश के लिए गौरव का विषय होते हैं। हाल ही में सम्पन्न यूरो कप फुटबाल इसका उदाहरण है। जिसके हर मैच को करोड़ों दर्शकों ने देखा। कहीं मैदान में तो कहीं स्क्रीन पर। भारत में भी खेल हमेशा से खेल की भावना से खेलने की परम्परा रही है। यह अलग बात है कि इन वर्षों में हम पदकों के लिए तरसने लगे हैं। छोटे-छोटे देश ओलिम्पिक जैसे बड़े खेलों में ढेरों पदक जीत ले जाते हैं और हम एक कांस्य पदक मिलने पर भी ऐसा जश्र मनाते हैं जैसे हमने दुनिया जीत ली हो। हमारी इस हालात का यदि कोई कारण है तो उसे जस्टिस लोढ़ा समिति ने बहुत बढिय़ा तरीके से पहचाना है। भले उन्होंने इसे केवल क्रिकेट के संदर्भ में माना हो लेकिन हमारे हर खेल का यही हाल है। खिलाडिय़ों में खूब दम है लेकिन खेल संघों पर काबिज थके-थकाए बूढ़े लोग उन्हें मैदान पर उतरने से पहले ही इतना थका देते हैं कि, वे वहां परफोर्म करने लायक ही नहीं रह जाते। कहीं चयन में भ्रष्टाचार होता है तो कहीं भाई-भतीजावाद। वहां बोली  टेलेंट की नहीं सिफारिशों की लगती है। जिसकी जितनी भारी सिफारिश होती है, वही टीम में चुना जाता है। योग्यता धरी रह जाती है। कई खेलों में तो परिवारवाद भी हावी दिखता है। खिलाडिय़ों की तो बात दूर अन्य ‘खेल प्रेमियों’ का भी नम्बर नहीं आ पाता। बाप के बाद बेटा ही पदाधिकारी बनता है। क्रिकेट की हैसियत तो वैसे भी दुनिया भर में खेलों के राजा की तरह है। उसे खेलने वाले भी खूब हैं तो देखने वाले भी कम नहीं हैं। अब यह खेल से ज्यादा व्यापार बन गया है। नामी खिलाडिय़ों से लेकर आला पदाधिकारियों तक सब इसमें फंसते नजर आते हैं। खेल में ग्लैमर इतना हो गया है कि राजनेताओं से लेकर अधिकारी तक इनकी कमान संभालने को लालायित रहते हैं। गिनती करें तो केन्द्रीय मंत्री और कई मुख्यमंत्री भी इनमें नजर आएंगे। अन्य राजनेताओं की तो शायद गिनती करना भी भारी लगे। अब जब जस्टिस लोढ़ा ने देश की क्रिकेट को सत्तर साल से ज्यादा उम्र के राजनेताओं से मुक्त कराने के साथ-साथ खेलों में एक व्यक्ति-एक पद (भले देश की राजनीति में लागू नहीं हो पाया हो) और एक राज्य-एक वोट लागू कर इसकी सफाई का ऐलान किया है तब केन्द्र और राज्यों की सरकारों से ऐसे ही कानून अन्य खेल संघों में भी लागू करने की उम्मीद की जानी चाहिए। एक कदम आगे की बात करें तो खेल संघों में राजनेताओं के पदाधिकारी बनने या न बनने पर भी चर्चा की जा सकती है। इस बात की क्या गारंटी है कि उनका खेल प्रेम पदाधिकारी बनने पर ही जागेगा! वह तो बिना पदाधिकारी बने भी जाग सकता है। और यदि सरकारें इस काम को न करें तब फिर गेंद न्यायालय के पाले में ही आएगी। शायद उसके हस्तक्षेप से क्रिकेट ही नहीं अन्य भारतीय खेलों की भी दशा सुधर जाए। हम दुनिया के खेल जगत में गर्दन ऊंची करके चलने लायक हो सकें। आज तो कॉमनवैल्थ खेलों के भ्रष्टाचार से लेकर क्रिकेट की सट्टेबाजी तक ने हमें कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा है। और अंत में एक सैल्यूट उस आदित्य वर्मा को जिसकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति बनाई और यह ऐतिहासिक फैसला आया।

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