हर हाथ में खंजर!

गोविन्द चतुर्वेदी

क्या भारत और पाकिस्तान के सम्बंधों में कभी ‘अच्छे दिन’ आएंगे अथवा पिछले ७० सालों की तरह आने वाले सैंकड़ों साल (पाकिस्तान के हुक्मरान तो १००० साल की बात करते हैं) तक दोनों देशों की जनता यूं ही लड़ते-लड़ते फना होती रहेगी? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है ! शायद ऊपर वाले के पास भी नहीं है? तभी तो दोनों तरफ कुर्सी पर कोई भी बैठ जाए, लड़ाई का माहौल खत्म नहीं होता। बिना किसी तरफदारी के यह कहने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि, दोनों देशों के सम्बंधों में खराबा दर खराबा होने की ज्यादा जिम्मेदारी पाकिस्तान की है। इसका सीधा सा कारण वहां की जम्हूरियत पर सेना का हावी होना है। और यह भी किसी से छिपा नहीं है कि, पाकिस्तान की सेना पर कौन हावी है? आज की बात छोड़ दें तो कुछ साल पहले तक वहां की सेना अमरीका के इशारों पर नाचती थी। फिर उस पर चीन का दखल बढऩे लगा और आज की तारीख में उस पर चीन के साथ-साथ कट्टरपंथी-उग्रवादियों का साया हावी है। पिछले दो-तीन दिनों के दौरान पाकिस्तान में हुए कुछ घटनाक्रमों ने इस पर मोहर भी लगा दी है। मसलन भारतीय सर्जिकल ऑपरेशन पर चर्चा के लिए जिस दिन पाकिस्तान में, सर्वदलीय बैठक हुई, उसी दिन   प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ एक और गुप्त बैठक हुई जिसमें निर्वाचित सरकार के कुछ असरदार वजीरों के साथ वहां की फौज, विदेश और नागरिक प्रशासन के आला अफसरों ने हिस्सा लिया। इस बैठक का जो मजमून बाहर आया है, (उस पर भरोसा सोच-समझ कर ही किया जाना चाहिए) उसके अनुसार विदेश सचिव एजाज चौधरी ने बताया कि, किस तरह पािकस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ा हुआ है ! किस तरह अमरीका सहित दुनिया के ज्यादातर मुल्क हमारी बात से सहमत होना तो दूर, हमें सुनने तक को तैयार नहीं हैं। और यह भी कि, यदि यही सब चलता रहा तो आने वाला वक्त पाकिस्तान के लिए और मुश्किलों का होगा। ऐसा क्यों हो रहा है, यह पूछे जाने पर चौधरी ने कई कारण गिनाए। जैसे अमरीका हक्कानी नेटवर्क पर नियंत्रण चाहता है। भारत मुम्बई और पठानकोट के आरोपियों के साथ जैश, मसूद, हाफिज और लश्कर पर दिखता हुआ एक्शन चाहता है। चौधरी के अनुसार चाइना भी इस बात से आजिज आया हुआ है कि, आखिर वह कब तक और क्यों यूएनओ में मसूद अजहर को प्रतिबंधित होने से बचाए? कहासुनी खूब हुई बताई। अन्य बातों के साथ इस बैठक की दो बातों पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है। पहले जब झगड़ा ज्यादा बढ़ा और सारे खराबे का दोष सेना तथा आईएसआई पर आया तब उसे बचाया प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने और यह कहकर कि, अब तक जो भी हुआ है वह सेना का अकेले नहीं, हम सबका निर्णय है। देश का निर्णय हैं इसलिए, तोहमत अकेले सेना और आईएसआई पर जडऩा ठीक नहीं है। दूसरे जब-जब कट्टरपंथियों पर सख्ती की बात आई तो छोटे नवाज (पंजाब के मुख्यमंत्री और शरीफ के छोटे भाई) शाहनवाज, कार्रवाई चाहने वालों के साथ खड़े नजर आए। तब तय हुआ कि, इस टारगेट को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नसीर जंजुआ और आईएसआई के डीजी रिजवान अख्तर साथ-साथ पाकिस्तान के चारों प्रांतों का दौरा करें। यह दौरा होगा, नहीं होगा, होगा तो क्या वाकई कोई नतीजे आएंगे, यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन भारत के लिए इसका एक संदेश और ज्यादा चौकन्ना रहने का है। इस बात में कोई शक नहीं कि, देश की सत्ता पर कोई पार्टी बैठे और कोई पीएम हो, सभी की चिंता देश की रक्षा करना होता है लेकिन जब सामने चीन जैसा शातिर और पाकिस्तान जैसा उसका उपनिवेशी व्यवहार वाला देश हो तब उनसे अच्छे व्यवहार की तो उम्मीद करना ही बेकार है। यहां इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि, इन महीनों में बड़े की बनिस्पत ‘छोटे शरीफ’ की चीन से नजदीकियां ज्यादा बढ़ी हैं। ‘चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर’ जिसे पाक से ज्यादा चीन अपनी गोल्डन फ्यूचर लाइन मानता है उसे समय से सुरक्षित पूरा कराने के लिए शाहनवाज के साथ सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ ने भी चीन सरकार से बड़े-बड़े वादे किए  हैं। राहिल का खुद का टर्म नवम्बर में खत्म हो रहा है। वे रहेंगे या जाएंगे इसमें शाहनवाज के साथ चीन का दखल भी महत्वपूर्ण हो सकता है। इस माहौल में हमें अपने ‘अच्छे दिनों’ के लिए बहुत ही चाक-चौबंद रहने की जरूरत है। नहीं तो खंजर हर हाथ में है।

कौन रहेगा भारी शरीफ या राहिल?

गोविन्द चतुर्वेदी
लगता है पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अपने ही बुने जाल में फंसते जा रहे हैं। अफगानिस्तान से लेकर भारत और आतंकवाद से लेकर अमरीका तक वे जितनी भी चालें चल रहे हैं, सब उल्टी पड़ रही हैं। सारे खेल  में, ले-देकर अकेला चीन उनके साथ नजर आता है लेकिन यह कहना मुश्किल है कि वह उनकी चाल में आया होगा। वह तो खुद इतना चालबाज है कि, १९६२ में भारत तक को धोखा दे चुका। धोखा भी ऐसा कि, आज ५५ साल बाद भी न भारत उस धोखे को भूला है और ना ही भारत की जनता। ऐसे में यही मानना बेहतर होगा कि, चीन ने पाकिस्तान और नवाज को अपने जाल में फंसा लिया है। पिछले कुछ महिनों में नवाज शरीफ को हर मोर्चे पर मार पड़ी है। कश्मीर के मुद्दे पर भारत से और आतंक के मोर्चे पर चीन को छोड़ समूचे विश्व से। अब ताजा मार पड़ती दिख रही है, उनकी अपनी ही सेना से। पाकिस्तान में सेना हमेशा से सरकार पर हावी रहती आई है। जब-जब उसे लगा कि, उसका कंट्रोल ढीला पड़ रहा है, तब-तब उसने बगावत का झण्डा बुलंद किया है। फिर चाहे फौजी सरकार बनी हो या नागरिक, झण्डा ऊंचा सेना का ही रहा है। फिर चाहे बात कैप्टेन अय्यूब खान की हो या फिर जनरलों में याह्या खान, जियाउल हक और परवेज मुशर्रफ की। कहते हैं अब उनकी मौजूदा आर्मी चीफ जनरल राहिल शरीफ से ठनी हुई है जिन्हें इन दिनों पाकिस्तान में, ‘बड़े या ताकतवर शरीफ’ के नाम से जाना जाता है। जब से नवाज शरीफ पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, राहिल की आवाज और भारी हो गई है। अब जबकि, जनरल शरीफ की सेवानिवृत्ति में करीब सवा महिने का ही वक्त बचा है, एक बड़ा सवाल पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी गूंज रहा है। सवाल है-राहिल शरीफ रहेंगे या जाएंगे? और रहेंगे तो सेनाध्यक्ष ही रहेंगे या फिर इतिहास अपने आप को दोहराएगा? वैसे ही जैसे सत्रह साल पहले हुआ। तब नवाज ही प्रधानमंत्री थे और जनरल मुशर्रफ ने तख्ता पलट कर कमान अपने हाथ में ले ली थी पाकिस्तान की। राहिल को एक ताकतवर जनरल के रूप में जानने वाले मानते हैं कि, पिछले कुछ महिनों से उनकी बॉडी लेंग्वेज बदली हुई है। चीन से नवाज के बजाए उनकी नजदीकी ज्यादा है। बेशक नवाज के भाई शाहनवाज की भी चीनी सरकार से गलबहियां होती रहती हैं लेकिन ‘चीन-पाकिस्तान इकोनोमिक कॉरिडोर’ के निर्माण को जो मजबूत सुरक्षा राहिल ने दे रखी है, वैसी ही बदले में चीन भी राहिल को दे सकता है। इसी तरह आज की तारीख में नवाज शरीफ का कोई सबसे ज्यादा विरोध कर रहा है तो वह क्रिकेटर से पॉलिटिशियन बने इमरान खान और उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि, उनकी कमजोर पीठ पर मजबूत हाथ किसका है-राहिल शरीफ का। राहिल के तेवरों को पिछले दिनों के पाकिस्तानी घटनाक्रमों से समझा जा सकता है। ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री के घर हुई उस बैठक का है जिसमें विदेश सचिव ने सेना पर आतंक को शह देने और आतंकवादियों को बचाने का आरोप लगाया था। इसकी खबर ‘डॉन’ में छपने, उसके पत्रकार सिरिल अल्मीडा पर देश छोडऩे की पाबंदी लगने और अंतत: पाबंदी हटाने के घटनाक्रम ने भी राहिल को कई घाव दिए हैं। अब तो सेना यानी बड़े शरीफ ने अपनी ही सरकार पर खबर लीक करने का खुला आरोप लगा दिया है। मतलब साफ है। तलवारें खिंची हुई हैं। राहिल का जाना बहुत आसान नहीं है। वे टिके रह सकते हैं। चाहे तो सेवा विस्तार के साथ या फिर बगावत करके। उधर नवाज की राह दोनों तरह कांटों से भरी है। चाहे वे टर्म बढ़ाएं या न बढ़ाएं। और डेमोक्रेसी ! और भारत से उसके रिश्ते ! पाकिस्तान में ये दोनों तो हमेशा से चुनौतियां झेलते रहे हैं, खतरे में रहे हैं ! कुल मिलाकर ऐसे हालात में मीर तकी ‘मीर’ का यह शेर मौजू है कि-
इब्तिदा-ऐ-इश्क है, रोता है क्या,
आगे-आगे देखिए होता है क्या?

फिल्म पर राजनीतिक तमाशा !

गोविन्द चतुर्वेदी

सत्तर साल के लोकतंत्र ने हम भारतीयों को और कुछ भले ना सिखाया हो लेकिन राजनीति जरूर सिखा दी है। अब हम हर काम में राजनीति करने लगे हैं। हर जगह राजनीति करने लगे हैं । राजनीति का एक तमाशा पूरा होता नहीं कि, हम दूसरा शूरू कर देते हैं। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर हुई राजनीति के बाद करण जौहर की फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ का उदाहरण ताजा है। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने फिल्म दिखाने पर उपद्रव की धमकी दी और सब उसके दबाव में आ गए। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का आश्वासन भी काम नहीं आया और जौहर को बिना किसी गलती के       पांच करोड़ रुपए भारतीय सेना के शहीद कोष में देने का समझौता करना पड़ा। शहीद कोष में पांच करोड़ रुपए देना बुरा नहीं है लेकिन सवाल यह है कि वह किन परिस्थितियों में दिया जा रहा है? मन से दिया जा रहा है या किसी दबाव में दिया जा रहा है? महाराष्ट्र में शिवसेना और उसी से टूटकर बनी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का आतंक किसी से छुपा नहीं है। तब महाराष्ट्र की सरकार का काम करण जौहर हो या अन्य कोई, उसे इस आतंक से बचाना है या फिर उनमें समझौता कराकर आगे के लिए उसे प्रोत्साहित करना है? सवाल यह है कि, क्या अपनी फिल्म में पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर करण जौहर ने कोई गलत काम किया? क्या भारतीय फिल्मों में पाकिस्तानी सितारों के काम करने पर कोई रोक है? यदि ऐसी कोई रोक नहीं है और इन पाकिस्तानी कलाकारों और इन पाकिस्तानी सितारों को वीजा, भारत सरकार ने ही दिया है तब उनकी फिल्म के प्रदर्शन पर इतना हंगामा क्यों? क्या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का प्रभाव मुम्बई से बाहर पूरे महाराष्ट्र में है? क्या अकेले मनसे के मुम्बई में विरोध के डर से पूरे भारत में फिल्म का प्रदर्शन रोक देना चाहिए? बेशक पाकिस्तान की सरकार, वहां की सेना और उनके समर्थित आतंकवादियों की करतूतों की वजह से आज भारत में पाक विरोधी माहौल है लेकिन क्या भावनाओं को कानून पर हावी होने की छूट होनी चाहिए? यदि ऐसा हुआ तब तो देश में कानून और कानून के राज का कोई मतलब नहीं रह जाएगा? तब क्या जरूरत रहेगी किसी कलक्टर, एसपी, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री की। राज्य और केन्द्र की सरकारों की। मुम्बई तो वैसे भी हफ्ता वसूली की जनक रही है। आदमी सीधे जाएगा, हफ्ता देगा और आगे बढ़ता रहेगा। क्या कोई भी सरकार इसकी अनुमति देगी? नहीं देगी। तब फिर इस मामले में क्यों दी? क्यों मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस ने खुद मध्यस्थता की? मामला साफ है। ‘ऐ दिल है मुश्किल’ तो माध्यम बनी है, निशाना इसके जरिए शिवसेना को साधने का है। उसी शिवसेना को जो महाराष्ट्र और केन्द्र की सरकार में भाजपा की हिस्सेदार है। हिस्सेदार भी ‘खाती भी है और गुर्राती भी है’ की तर्ज वाली। हर कदम पर भाजपा की नाक में दम करके रखती है। भले ताकत अब वैसी न हो जो बाल ठाकरे के समय थी फिर भी अलग लड़े तो भाजपा को नुकसान तो पहुंचा ही सकती है। वृहत्तर मुम्बई म्युनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव अगले साल ही होने हैं। भले आज उस पर शिवसेना और भाजपा दोनों मिलकर काबिज हों लेकिन सरकार पर काबिज होने की वजह से भाजपा अब पूरा कब्जा चाहती है। शिवसेना को कमजोर करके और उसका रास्ता यही है कि, मनसे को पनपाने का डर दिखाओ। चूंकि मनसे के पास भी आज उसमें भाजपा से ज्यादा ताकत है, इसलिए दाव फिट बैठने के फिफ्टी-फिफ्टी चांस है। इसका नतीजा जो हो, दाव कारगर हो या न हो लेकिन ऐसी राजनीति से देश को, व्यवस्था को तो नुकसान ही है। देश को इस नुकसान से बचाने की जिम्मेदारी सरकारों की है और यदि वे ही ऐसे समर्पण करेंगी तो कैसे काम चलेगा? पाकिस्तान से खट्टे-मीठे रिश्ते हमेशा चलेंगे। इसलिए जरूरी है कि सरकार एक स्थाई नीति बना दे। जब तक राजनायिक रिश्ते हैं, जब तक कलाकारों को वीजा है तब तक कोई रोक नहीं होनी चाहिए। रोक लगाने वालों पर रोक लगनी ही चाहिए। सरकार और अदालत के अलावा किसी के पास ऐसे अधिकार नहीं होने चाहिए।

चीन से बातें हों पर साफ-साफ

गोविन्द चतुर्वेदी

हम मानें या न मानें लेकिन चीन के साथ हमारे रिश्ते दिन-ब-दिन खराब ही होते जा रहे हैं। निश्चित रूप से पाकिस्तान इसका एक बड़ा कारण है लेकिन अकेला कारण नहीं है। स्वयं चीन और एक सीमा तक भारत भी इन बिगड़ते रिश्तों के लिए जिम्मेदार है। रिश्तों में यह खराबा किस हद तक पहुंच गया है, इसे दोनों देशों के सम्बंधों को सालों से पढ़ रहे जानकारों के इस एक निष्कर्ष से समझा जा सकता है कि, यदि भारत और पाकिस्तान के मध्य सीधे युद्ध के हालात बनते हैं तो वह पाकिस्तान नहीं वस्तुत: चीन के साथ होगा। आखिर ऐसा क्या हुआ कि, ढाई साल में हालात इतने खराब हो गए। मई २०१४ में जब केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी और कांग्रेस की सरकार गई तब हालात इतने खराब नहीं थे। बीच में एक दौर तो ऐसा भी आया जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर हुई नियमित मुलाकातों ने, न केवल दोनों पड़ोसी राजनेताओं में परस्पर बेहतर समझ बनने का संकेत दिया बल्कि कई मौकों पर तो यह भी लगने लगा कि अगर सम्बंध सुधार की यही रफ्तार जारी रही तो दो अविश्वसनीय पड़ोसी ‘दो विश्वस्त दोस्त’ बन जाएंगे। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल की अपने चीनी समकक्ष और अन्य अधिकारियों से नियमित मुलाकातें भी इस धारणा का मजबूत आधार बनी। लेकिन आज जो हालात हैं, उनसे लगता है कि, यह सब इल्युजन (एक आभासी दृश्य) ही था। वर्ना इतनी जल्दी रिश्तें क्यों बिगड़े? क्यों हिन्दी-चीनी, भाई-भाई और पंचशील के दौर से निकलकर हम फिर एक बार १९६२ के उसी अक्टूबर-नवम्बर के दौर में पहुंचे से लगते हैं जब दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हो गई थीं। क्यों चीन हमें एनएसजी का सदस्य नहीं बनने दे रहा? क्यों चीन जैश-ए-मोहम्मद के चीफ मसूद अजहर को यूएन से आतंकी घोषित होने पर ‘वीटो’ लगा रहा है? क्या दो हजार किमी लम्बा ‘चीन-पाकिस्तान इकोनोमिक कॉरिडोर’ (सीपीइसी) ही इसकी वजह है अथवा फिर और भी कारण है। सचाई यह है कि हम दूध के जले हैं और छाछ को भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं। उधर चीन और उसका नेतृत्व चाहे वह माओ त्से तुंग हों या चाऊ एन लाई, डेंग जियाओ पिंग हो या जियांग जैमिन अथवा फिर अब शी जिनपिंग सबके दिमाग में भारत की तस्वीर एक ऐसे देश की रही है जो इस क्षेत्र में चीन के मुकाबले खड़ा हो सकता है। चीन के पास पांच बड़े नेताओं के नाम हैं तो भारत के पास भी जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेन्द्र मोदी के नाम है। पीवी नरसिंह राव ने भारत में जिस उदारीकरण की शुरुआत की, भारत उसमें भी आज मजबूती से खड़ा है। आज की तारीख में हमारी इकोनोमी चीन से ज्यादा मजबूत है। यही कारण है ५१ बिलियन अमरीकी डॉलर से सीपीइसी बनाकर भी चीन भारत की ओर देख रहा है। वह ग्वादर को उस चाबहार बंदरगाह से जोडऩा चाहता है जिसे भारत ईरान में बना रहा है। इन सब ख्वाहिशों के बीच जब वह भारत की अमरीका और जापान से बढ़ती नजदीकियां देखता है तो बिगड़ जाता है। फिर उसे भारत की हर बात और हर नेता खराब लगने लगते हैं। खुद भले ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ में कॉरिडोर बनाए लेकिन अरुणाचल के तवांग में अमरीकी राजदूत का जाना भी उसे बुरा लगने लगता है। वह हर बात का जवाब देने की कोशिश करता है। कभी सीधे कभी घुमा-फिराकर, जैसा कूटनीति में होता है। दो दिन पहले ही चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर पर सौ कंटेनर भेजना भी वैसा ही संदेश है। अभी कॉरिडोर पूरा बना भी नहीं है तब काहे का व्यापार। फिर उन कंटेनरों में क्या है, यह न कोई खोलकर देख सकता और ना ही उस पर कोई कस्टम ड्यूटी। यानी उनमें भारत से लडऩे के लिए हथियार भी हों तो किसे पता? चीन की सेना पहले ही पाक फौज के साथ इस दो हजार किमी लम्बे कॉरिडोर की सुरक्षा की निगरानी कर रही है। पंजाब, बलूचिस्तान, सिंध, खैबर पख्तूनवा और इस्लामाबाद तक। यानी, कभी पाकिस्तान से युद्ध के हालात बने तो चीनी फौज भारत से लगती अपनी सीमा के साथ भारत-पाक सीमा पर भी मौजूद। अब जबकि भारत और चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इसी सप्ताह भारत में फिर मिल रहे हैं तब यह सारे मुद्दे साफ हो जाने चाहिए। यह स्पष्ट हो ही जाना चाहिए कि, चीन अकेले पाकिस्तान का ही दोस्त है (जैसे उसके नेता जब-तब कहते रहते हैं) अथवा फिर वह भारत से भी अच्छे सम्बंध चाहता है। भले वह पाकिस्तान को अपना पिछलग्गू बनाकर रखे लेकिन भारत की चिंताओं और उससे जुड़े मुद्दों पर अपना स्टैण्ड क्लियर कर दे। उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थाई सदस्यता, एनएसजी की सदस्यता, मसूद अजहर सहित पाक समर्थित आतंक पर उसका दृष्टिकोण, पाक अधिकृत कश्मीर में उसकी व्यापारिक और सैन्य गतिविधियां। बदले में हमें भी चीनी सामान के बहिष्कार जैसी छेडख़ानियों से बचना चाहिए। वो अपने दोस्त बनाए और हम अपने लेकिन दोनों एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बनें, यह रोड मेप तो बनना ही चाहिए। बेशक इसमें चीन की भूमिका ज्यादा बड़ी है। उसे ही यह साबित करना होगा कि, वह अब दिल से साफ है। नहीं तो हमारे पास तो यह मानने के लिए उसका ५५ साल का इतिहास है कि उसके हमसे रिश्ते मुंह में राम, बगल में छुरी जैसे हैं। दोनों देशों के बीच अविश्वास की इस खाई को, उसे ही पाटना होगा, अन्यथा रोज-रोज की इन बातों का कोई लाभ नहीं मिलेगा। कहीं चीन एक बार फिर हमें हमारे प्यार का वैसा ही सिला नहीं दे जैसा पहले दे चुका है या फिर आज पाकिस्तान दे रहा है।

बधाई सुप्रीम कोर्ट लेकिन क्रिकेट ही क्यों….?

गोविन्द चतुर्वेदी

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर एम लोढ़ा को बधाई। भारतीय क्रिकेट की दशा और दिशा सुधारने के उनके प्रयासों की जितनी तारीफ की जाए कम है। सराहना का हकदार हमारा सुप्रीम कोर्ट भी कम नहीं है जिसने लोढ़ा समिति की ज्यादातर सिफारिशों को लागू करने का फैसला सुनाया। फैसले के साथ ही जो एक और बड़ा काम सर्वोच्च न्यायालय ने किया वह यह कि न केवल इसे लागू करने के लिए छह महीने की समय सीमा दी बल्कि जस्टिस लोढ़ा को ही यह देखने का जिम्मा भी दे दिया कि वह फैसले की भावना में ही लागू हो। खेल, दुनिया के हर देश के लिए गौरव का विषय होते हैं। हाल ही में सम्पन्न यूरो कप फुटबाल इसका उदाहरण है। जिसके हर मैच को करोड़ों दर्शकों ने देखा। कहीं मैदान में तो कहीं स्क्रीन पर। भारत में भी खेल हमेशा से खेल की भावना से खेलने की परम्परा रही है। यह अलग बात है कि इन वर्षों में हम पदकों के लिए तरसने लगे हैं। छोटे-छोटे देश ओलिम्पिक जैसे बड़े खेलों में ढेरों पदक जीत ले जाते हैं और हम एक कांस्य पदक मिलने पर भी ऐसा जश्र मनाते हैं जैसे हमने दुनिया जीत ली हो। हमारी इस हालात का यदि कोई कारण है तो उसे जस्टिस लोढ़ा समिति ने बहुत बढिय़ा तरीके से पहचाना है। भले उन्होंने इसे केवल क्रिकेट के संदर्भ में माना हो लेकिन हमारे हर खेल का यही हाल है। खिलाडिय़ों में खूब दम है लेकिन खेल संघों पर काबिज थके-थकाए बूढ़े लोग उन्हें मैदान पर उतरने से पहले ही इतना थका देते हैं कि, वे वहां परफोर्म करने लायक ही नहीं रह जाते। कहीं चयन में भ्रष्टाचार होता है तो कहीं भाई-भतीजावाद। वहां बोली  टेलेंट की नहीं सिफारिशों की लगती है। जिसकी जितनी भारी सिफारिश होती है, वही टीम में चुना जाता है। योग्यता धरी रह जाती है। कई खेलों में तो परिवारवाद भी हावी दिखता है। खिलाडिय़ों की तो बात दूर अन्य ‘खेल प्रेमियों’ का भी नम्बर नहीं आ पाता। बाप के बाद बेटा ही पदाधिकारी बनता है। क्रिकेट की हैसियत तो वैसे भी दुनिया भर में खेलों के राजा की तरह है। उसे खेलने वाले भी खूब हैं तो देखने वाले भी कम नहीं हैं। अब यह खेल से ज्यादा व्यापार बन गया है। नामी खिलाडिय़ों से लेकर आला पदाधिकारियों तक सब इसमें फंसते नजर आते हैं। खेल में ग्लैमर इतना हो गया है कि राजनेताओं से लेकर अधिकारी तक इनकी कमान संभालने को लालायित रहते हैं। गिनती करें तो केन्द्रीय मंत्री और कई मुख्यमंत्री भी इनमें नजर आएंगे। अन्य राजनेताओं की तो शायद गिनती करना भी भारी लगे। अब जब जस्टिस लोढ़ा ने देश की क्रिकेट को सत्तर साल से ज्यादा उम्र के राजनेताओं से मुक्त कराने के साथ-साथ खेलों में एक व्यक्ति-एक पद (भले देश की राजनीति में लागू नहीं हो पाया हो) और एक राज्य-एक वोट लागू कर इसकी सफाई का ऐलान किया है तब केन्द्र और राज्यों की सरकारों से ऐसे ही कानून अन्य खेल संघों में भी लागू करने की उम्मीद की जानी चाहिए। एक कदम आगे की बात करें तो खेल संघों में राजनेताओं के पदाधिकारी बनने या न बनने पर भी चर्चा की जा सकती है। इस बात की क्या गारंटी है कि उनका खेल प्रेम पदाधिकारी बनने पर ही जागेगा! वह तो बिना पदाधिकारी बने भी जाग सकता है। और यदि सरकारें इस काम को न करें तब फिर गेंद न्यायालय के पाले में ही आएगी। शायद उसके हस्तक्षेप से क्रिकेट ही नहीं अन्य भारतीय खेलों की भी दशा सुधर जाए। हम दुनिया के खेल जगत में गर्दन ऊंची करके चलने लायक हो सकें। आज तो कॉमनवैल्थ खेलों के भ्रष्टाचार से लेकर क्रिकेट की सट्टेबाजी तक ने हमें कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं छोड़ा है। और अंत में एक सैल्यूट उस आदित्य वर्मा को जिसकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने लोढ़ा समिति बनाई और यह ऐतिहासिक फैसला आया।

जगहंसाई

गोविन्द चतुर्वेदी

न्यायपालिका को सलाम ! फिर वह सर्वोच्च न्यायालय हो या उच्च न्यायालय । उत्तराखण्ड में सरकार के बहुमत के सवाल पर उनका निर्णय और भूमिका काबिले तारीफ है । इस निर्णय ने किसी एक राज्य या पार्टी की सरकार को नहीं बचाया, लोकतंत्र को बचाया है । न्यायालय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि, उसके लिए न केन्द्र की सरकार बड़ी है न राज्य की । और तो और इस मामले में एक बार तो उसने (नैनीताल हाईकोर्ट ने) देश के राष्ट्रपति तक के लिए कह दिया कि-वे भी गलत हो सकते हैं । बाद में जो हुआ, उससे सर्वोच्च न्यायालय में भी इस पर मोहर लगी । उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने वाली ‘मोदी सरकार’ और उस पर हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रपति भी गलत साबित हुए । सरकार को तो जैसे थूंक कर चाटना पड़ा । अपना ही आदेश वापस लेना पड़ा । वस्तुतः न्यायपालिका ने सभी को आईना दिखा दिया । और यह पहली बार नहीं हुआ । जब-जब संविधान पर हमले हुए हैं, वह उसके सामने ढाल बन कर खड़ी हुई है । धारा ३५६ के दुरूपयोग पर बोम्मई मामला तो इसका उदाहरण है ही । अफसोस इस बात का है, भारतीय जनता पार्टी जो जनसंघ के समय से ही इसके दुरूपयोग को लेकर कांग्रेस पर हमलावर रही, आज स्वयं उसका उपयोग कर रही है । लगभग ऐसी ही कहानी अरूणाचल की है । मणिपुर बच गया, अन्यथा धारा ३५६ का एक एपिसोड वहां भी खेलने की पूरी तैयारी हो गई थी ।

सर्वोच्च न्यायालय में बुधवार को जो हुआ, वह केवल राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार ही नहीं, उन तमाम राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए भी सबक है जो जब-तब लोकतंत्र का चीरहरण करने की तैयारी में रहते हैं । मामला इतना बड़ा होता ही नहीं यदि कांग्रेस अपना घर संभाल कर रखती । सबसे पहले बागी तो उसी के विधायक हुए । चाहे वह अरूणाचल हो या मणिपुर अथवा फिर उत्तराखण्ड । लोकतंत्र तो वहां भी कहां था । विधायकों की आवाज तो वहां भी नहीं सुनी गई । सुनी जाती तो शायद यह नौबत नहीं आती ।

और भारतीय जनता पार्टी । उसे हर जगह फटे में पांव देने की क्या जरूरत है? यदि वह ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अपना सपना पूरा करना ही चाहती है तो उसका सही मंच चुनाव का मैदान है । मतदाता ने मोहर लगाई तो लोकसभा में उसे २८३ सीटें मिल गईं । कांग्रेस की ४४ रह गईं । बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड के नतीजे सबके सामने हैं । अगर अपना सपना पूरा करने के लिए वह किसी भी हद तक जाएगी तो यही होगा जो बुधवार को हुआ ! जगहंसाई । और पार्टी की ही नहीं, केन्द्र सरकार तक की । पार्टी पर हो रहे हमलों में प्रधानमंत्री भी घिर गए । आलोचकों को कहने का मौका मिल गया कि, उन्हें नौसिखिये सलाहकारों-रणनीतिकारों से बचना होगा । नहीं तो वे उनकी भी इज्जत धूल में मिला देंगे ।

राजनीति, राजनीति होती है । उसमें सबका चाल, चरित्र और चेहरा एक सा होता है । कहीं कोई फर्क नहीं होता । इससे पहले कि, देश के किसी अन्य राज्य में फिर उत्तराखण्ड़ जैसा राजनीतिक खेल खेला जाए, देश के तमाम राजनीतिक दलों को, चाहे वे सत्ता में हों या सत्ता से बाहर हों, कम से कम दो बातों पर सर्वसम्मति बना लेनी चाहिए । पहली, कोई भी सांसद, विधायक या अन्य निर्वाचित जनप्रतिनिधि यदि अपना मूल दल बदलता है ( अकेले या एक-तिहाई) तो उस सदन की उसकी सदस्यता स्वतः ही तुरंत प्रभाव से समाप्त हो जाएगी । उसे नई पार्टी से, नये सिरे से चुनाव लड़ना होगा । नम्बर दो संसद या विधानसभा में बहुमत का फैसला केवल और केवल सदन में ही होगा । ये दो कानून बन गए तो समझो लोकतंत्र बच गया । नहीं तो सुप्रीम कोर्ट को आए दिन ऐसे ही ‘अमृत मंथन’ करना पड़ेगा, लोकतंत्र को बचाने के लिए ।

नेताओं को मिले सजा

गोविन्द चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश के कैराना से भाजपा सांसद, हुकुम सिंह ने मंगलवार को अपनी चार दिन पुरानी सूची वापस ले ली। चार दिन पहले उन्होंने आरोप लगाया था कि, कैराना से ३५० से ज्यादा हिन्दू परिवार पलायन कर गए हैं। उन्होंने इसकी बाकायदा नाम-पते सहित सूची भी जारी की थी। इसकी वजह भी उन्होंने साफ-साफ मुस्लिमों का डर बताया। अब मंगलवार को उन्होंने यू-टर्न ले लिया। कहा जो लोग कैराना से अपना घर छोड़ कर गए, वेे साम्प्रदायिक डर से नहीं गए। उन्होंने यह भी कहा कि, कैराना छोडऩे वाली लिस्ट में अकेले हिन्दू नहीं, हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही परिवारों के लोग शामिल हैं। अब उन्होंने इसकी वजह साम्प्रदायिकता नहीं बल्कि कानून-व्यवस्था के खराब हालात बताए हैं। कमोबेश यही सब बातें, आरोपों की मीडिया जांच में पहले ही सामने आ चुकी हैं। उसमें यह भी आया है कि, ये सारे परिवार साल-छह माह में घर छोड़ कर नहीं गए। कम से कम पिछले १५-२० वर्षों में गए हैं और आतंक की वजह से नहीं धंधे-रोजगार की तलाश में गए हैं।
उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश की जनता के सामने आज सबसे बड़ा प्रश्र यह है कि, क्या हुकुम सिंह को उनके आरोप वापस लेने की इजाजत दे दी जाए? और यदि जनता ऐसा कर भी दे तब क्या हुकुम सिंह के आरोप इतिहास के पन्नों से मिट जाएंगे।
सब जानते हैं, उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक दृष्टि से कितना संवेदनशील हैं। आज से नहीं सदियों से। जरा-जरा सी बात पर वहां हालात खून-खराबे तक पहुंचते रहे हैं। दादरी के अखलाक का उदाहरण तो ताजा है ही, लेकिन उसके पहले मुजफ्फरनगर से लेकर मुरादाबाद और आजमगढ़ से लेकर बरेली तक, जगह-जगह छोटी-छोटी बातों पर नाहक ही खून खौलता रहा है। जिसकी सजा भी जान देकर बेगुनाहों ने ही भोगी है। हुकुम सिंह का आरोप भी इसी तरह का है। वो तो ऊपर वाले का अहसान मानना चाहिए कि, चार दिन में कुछ नहीं हुआ पर यदि कुछ हो जाता तब उसकी सजा कौन भोगता? उत्तर प्रदेश और देश का आम आदमी! शर्मसार कौन होता ? इंसानियत और देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी । वैसे ही जैसे गुजरात के दंगों के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हुए । उन्हें सार्वजनिक रूप से कहना पड़ा कि, अब मैं दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगा।
हुकुम सिंह बच्चे नहीं हैं। करीब-करीब ८० साल के हैं। राजनीति में भी नए नहीं हैं। विधायक भी रहे हैं और मंत्री भी। इसलिए यह मानना भी नासमझी होगी कि, उन्होंने जो कहा यूं ही कह दिया। अपने कहे का मतलब और असर वे भी जानते हैं और जनता भी। वर्ष २०१३ के मुजफ्फरनगर दंगे सबको याद हैं। और अकेले हुकुम सिंह की ही क्यों, यहां जिक्र आजम खान का भी जरूरी है और असादुद्दीन औवेसी का भी। अकबरुद्दीन औवेसी का भी तो साक्षी महाराज और ठाकरे भाईयों का भी। उन सभी का, जो संविधान की शपथ भी खाते हैं और उसकी धज्जियां भी उड़ाते हैं। कम से कम सांसद-विधायकों से देश की जनता इतनी तो उम्मीद कर ही सकती है कि, वे जो बोलें तोल-मोल कर बोलें। अमृत वर्षा न भी करें तो जहर तो नहीं उगलें। यह तो सुनिश्चित करके  बोलें कि, उनके श्रीमुख से निकले शब्दों की गति थंूक कर चाटने जैसी नहीं होगी। जो कहेंगे उसे सिद्ध करेंगे। और यदि वे इतने जिम्मेदार नहीं रहते तब यह सरकार का जिम्मा है कि, वह उन्हें पाबंद करे। नहीं मानें तो उन पर कानूनी कार्यवाही हो। हुकुम सिंह अपने शब्दों को वापस ले लें। आजम खान के शब्दों (कि, प्रधानमंत्री अपनी लाहौर यात्रा के दौरान दाऊद इब्राहिम से मिले) का सरकार नोटिस ही नहीं ले तब क्या माना जाए। यही कि, सरकार भी चाहती है, यही सब चलता रहे। राजनीति का चूल्हा जलता रहे और चुनावी रोटियां सिकती रहे।

हर हाथ में खंजर!

गोविन्द चतुर्वेदी

क्या भारत और पाकिस्तान के सम्बंधों में कभी ‘अच्छे दिन’ आएंगे अथवा पिछले ७० सालों की तरह आने वाले सैंकड़ों साल (पाकिस्तान के हुक्मरान तो १००० साल की बात करते हैं) तक दोनों देशों की जनता यूं ही लड़ते-लड़ते फना होती रहेगी? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है ! शायद ऊपर वाले के पास भी नहीं है? तभी तो दोनों तरफ कुर्सी पर कोई भी बैठ जाए, लड़ाई का माहौल खत्म नहीं होता। बिना किसी तरफदारी के यह कहने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि, दोनों देशों के सम्बंधों में खराबा दर खराबा होने की ज्यादा जिम्मेदारी पाकिस्तान की है। इसका सीधा सा कारण वहां की जम्हूरियत पर सेना का हावी होना है। और यह भी किसी से छिपा नहीं है कि, पाकिस्तान की सेना पर कौन हावी है? आज की बात छोड़ दें तो कुछ साल पहले तक वहां की सेना अमरीका के इशारों पर नाचती थी। फिर उस पर चीन का दखल बढऩे लगा और आज की तारीख में उस पर चीन के साथ-साथ कट्टरपंथी-उग्रवादियों का साया हावी है। पिछले दो-तीन दिनों के दौरान पाकिस्तान में हुए कुछ घटनाक्रमों ने इस पर मोहर भी लगा दी है। मसलन भारतीय सर्जिकल ऑपरेशन पर चर्चा के लिए जिस दिन पाकिस्तान में, सर्वदलीय बैठक हुई, उसी दिन   प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ एक और गुप्त बैठक हुई जिसमें निर्वाचित सरकार के कुछ असरदार वजीरों के साथ वहां की फौज, विदेश और नागरिक प्रशासन के आला अफसरों ने हिस्सा लिया। इस बैठक का जो मजमून बाहर आया है, (उस पर भरोसा सोच-समझ कर ही किया जाना चाहिए) उसके अनुसार विदेश सचिव एजाज चौधरी ने बताया कि, किस तरह पािकस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ा हुआ है ! किस तरह अमरीका सहित दुनिया के ज्यादातर मुल्क हमारी बात से सहमत होना तो दूर, हमें सुनने तक को तैयार नहीं हैं। और यह भी कि, यदि यही सब चलता रहा तो आने वाला वक्त पाकिस्तान के लिए और मुश्किलों का होगा। ऐसा क्यों हो रहा है, यह पूछे जाने पर चौधरी ने कई कारण गिनाए। जैसे अमरीका हक्कानी नेटवर्क पर नियंत्रण चाहता है। भारत मुम्बई और पठानकोट के आरोपियों के साथ जैश, मसूद, हाफिज और लश्कर पर दिखता हुआ एक्शन चाहता है। चौधरी के अनुसार चाइना भी इस बात से आजिज आया हुआ है कि, आखिर वह कब तक और क्यों यूएनओ में मसूद अजहर को प्रतिबंधित होने से बचाए? कहासुनी खूब हुई बताई। अन्य बातों के साथ इस बैठक की दो बातों पर ध्यान दिया जाना बहुत जरूरी है। पहले जब झगड़ा ज्यादा बढ़ा और सारे खराबे का दोष सेना तथा आईएसआई पर आया तब उसे बचाया प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने और यह कहकर कि, अब तक जो भी हुआ है वह सेना का अकेले नहीं, हम सबका निर्णय है। देश का निर्णय हैं इसलिए, तोहमत अकेले सेना और आईएसआई पर जडऩा ठीक नहीं है। दूसरे जब-जब कट्टरपंथियों पर सख्ती की बात आई तो छोटे नवाज (पंजाब के मुख्यमंत्री और शरीफ के छोटे भाई) शाहनवाज, कार्रवाई चाहने वालों के साथ खड़े नजर आए। तब तय हुआ कि, इस टारगेट को पूरा करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नसीर जंजुआ और आईएसआई के डीजी रिजवान अख्तर साथ-साथ पाकिस्तान के चारों प्रांतों का दौरा करें। यह दौरा होगा, नहीं होगा, होगा तो क्या वाकई कोई नतीजे आएंगे, यह भविष्य के गर्भ में है लेकिन भारत के लिए इसका एक संदेश और ज्यादा चौकन्ना रहने का है। इस बात में कोई शक नहीं कि, देश की सत्ता पर कोई पार्टी बैठे और कोई पीएम हो, सभी की चिंता देश की रक्षा करना होता है लेकिन जब सामने चीन जैसा शातिर और पाकिस्तान जैसा उसका उपनिवेशी व्यवहार वाला देश हो तब उनसे अच्छे व्यवहार की तो उम्मीद करना ही बेकार है। यहां इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि, इन महीनों में बड़े की बनिस्पत ‘छोटे शरीफ’ की चीन से नजदीकियां ज्यादा बढ़ी हैं। ‘चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कॉरिडोर’ जिसे पाक से ज्यादा चीन अपनी गोल्डन फ्यूचर लाइन मानता है उसे समय से सुरक्षित पूरा कराने के लिए शाहनवाज के साथ सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ ने भी चीन सरकार से बड़े-बड़े वादे किए  हैं। राहिल का खुद का टर्म नवम्बर में खत्म हो रहा है। वे रहेंगे या जाएंगे इसमें शाहनवाज के साथ चीन का दखल भी महत्वपूर्ण हो सकता है। इस माहौल में हमें अपने ‘अच्छे दिनों’ के लिए बहुत ही चाक-चौबंद रहने की जरूरत है। नहीं तो खंजर हर हाथ में है।

किसकी जिम्मेदारी?

गोविन्द चतुर्वेदी

हिंगोनिया गोशाला में ढाई साल के भाजपा राज में २७ हजार ‘गोमाताओं’ ने दम तोड़ दिया। यह दर्दनाक भी है और शर्मनाक भी। इसलिए और भी ज्यादा कि, यह गोशाला राजधानी जयपुर से सटी है। उस राजधानी से, जिसमें महामहिम राज्यपाल से लेकर माननीया मुख्यमंत्री तक सब रहते हैं। पूरी कार्यपालिका भी यहीं विराजती है। ऐसा भी नहीं है कि, हिंगोनिया का सच पहली बार सामने आया हो। न्यायपालिका तक हिंगोनिया को लेकर कई बार फटकार लगा चुकी। सरकार को भी और नगर निगम को भी, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। गोपालन विभाग और एक गोपालक ओटाराम देवासी को उसका मंत्री बनाने के बाद भी परनाला वहीं गिर रहा है।       हिंगोनिया की हिस्ट्री पुरानी है, वह १० साल से बदनाम है। पहले भ्रष्टाचार ही होता था। अब उसके साथ गायें भी मरने लगी। कहां जाता है, सालाना २० करोड़ से ज्यादा का सरकारी अनुदान, किसी को नहीं पता? उस मेयर को भी नहीं, जिसे शहर की जनता ने बड़ी उम्मीदों से अपना ‘प्रथम नागरिक’ बनाया। मेयर बनने के बाद जब उन्हें ही हिंगोनिया जाने की फुर्सत नहीं मिली तो गोपालन मंत्री से तो उम्मीद ही करना बेकार है। उन पर तो वैसे भी पूरे राजस्थान का भार है। जब केबिनेट में शामिल जयपुर के तीन-तीन भारी-भरकम मंत्रियों को ही ‘गायों की कत्लगाह बनी हिंगोनिया गोशाला’ की सुध लेने की जरूरत नहीं लगी तो ओटासी तो वैसे भी राज्यमंत्री हैं। शनिवार को जब मुख्यमंत्री को कहीं से पता चला और उन्होंने धमकाया तब मंत्रियों की नींद खुली। सवाल यह भी बड़ा है कि, आखिर इतनी बड़ी घटना की खबर मुख्यमंत्री तक इतनी देर से क्यों पहुंची? मुख्य सचिव से लेकर पूरा सचिवालय है ! उनका अपना अलग से मुख्यमंत्री सचिवालय भी है, जिसके मुखिया एक बड़े आईएएस अधिकारी हैं। उन्होंने सारी जानकारी मुख्यमंत्री तक क्यों नहीं      पहुंचाई? क्या मुख्यमंत्री सचिवालय का काम उन्हें मीटिंगों की सूचना देना भर है, या फिर पूरे राज्य में कहां, क्या हो रहा है, यह सब बताना भी है? यदि सारी जानकारी समय से मुख्यमंत्री तक पहुंचती तो शायद ‘एक्शन’और पहले हो जाता। तीनों मंत्री और अफसरों की फौज समय से हिंगोनिया  पहुंच जाती। तब शायद सैंकड़ों गायों की जान बच भी सकती थी। हिंगोनिया की हजारों गायों ने अपनी जान देकर राजस्थान सरकार को चेताया है। अब सवाल अकेले हिंगोनिया का नहीं, पूरे राजस्थान की गोशालाओं का है। सरकारी हों या गैर सरकारी, एक बार सभी की जांच होनी चाहिए। और यह जांच प्रशासनिक नहीं न्यायिक होनी चाहिए। गाय हमारे लिए ‘आवारा पशु’ नहीं गोमाता है। हर घर में सबसे पहली रोटी गाय की ही निकलती है। वह दूध भी देती है और घी भी। वह किसी भी तरह इंसान से कम नहीं है। इसलिए हजारों गायों की मौत पर जांच की लीपापोती नहीं होनी चाहिए। पूरी जांच के बाद कमियां दूर कर सभी के सामने सिरोही में पावापुरी, जैसलमेर में भादरिया और जालोर में पथमेढ़ी जैसी गोशालाओं के उदाहरण रखने चाहिए, जहां गायों को इतने प्यार से रखा जाता है कि, हजारों में से जिसका नाम लो, वही दौड़ी चली आती है। और अंत में ऐसी लापरवाही, जिसने राजस्थान का नाम पूरे देश में बदनाम कर दिया कि सजा किसी छोटे-मोटे कर्मचारी का निलम्बन नहीं हो सकता । दोषी कोई बड़ा से बड़ा अफसर हों या राजनेता उन्हें घर बिठाया जाना चाहिए, ताकि दूसरों को सबक मिले।
द्दश1द्बठ्ठस्र.ष्द्धड्डह्लह्वह्म्1द्गस्रद्बञ्चद्गश्चड्डह्लह्म्द्बद्मड्ड.ष्शद्व

मुनाफाखोरी की राह पर रेलवे

गोविन्द चतुर्वेदी

एक जमाना था जब मालभाड़ा और रेल किराया केवल रेल बजट में ही बढ़ता था। रेल बजट निकला और आम आदमी निश्चिंत हो जाता था साल भर के लिए। यही हाल आम बजट और उससे जुड़े करों का था लेकिन बाजारीकरण ने सारी तस्वीर ही बदल दी है। अब कभी भी रेल किराया बढ़ जाता है और कभी भी अन्य कर लग जाते हैं। पेट्रोल-डीजल के दाम घटने-बढऩे का तो पता ही सुबह उठने पर अखबारों से चलता है, जब नई दरें लागू हो चुकी होती हैं। पहले रेल किराये में एक-डेढ़ पैसे प्रति किमी की बढ़ोतरी के प्रस्ताव लाने में भी रेल मंत्री को पसीने आ जाते थे। विपक्ष (ज्यादातर समय जनसंघ-भाजपा) इस बढ़ोतरी के खिलाफ उसके छक्के छुड़ा देता था। अब न विपक्ष में वो ताकत रही न सरकारों के दिलों-दिमाग में बजट की कुछ पवित्रता और गरिमा। बुधवार का उदाहरण ताजा है। ज्यादातर भारतीयों को सुबह उठने पर पता चला कि, सरकार ने दूरंतो, राजधानी और शताब्दी ट्रेनों का किराया बढ़ा दिया है। वह भी डेढ़ गुना तक। यानी १०० के १५० रुपए। रेल सबसे गरीब आदमी का साधन है। जिसकी जेब में थोड़ा पैसा आ गया वो राजधानी और दूरंतो में भी सफर कर लेता है। जब उस पर यह मार पड़ेगी तो वह कैसे झेल पाएगा? रेलवे भी इससे कितने लाभ में आ पाएगी, कहना मुश्किल है। जब हिन्दुस्तान में चोरी खत्म नहीं हो सकती तो रेलवे का घाटा भी खत्म नहीं हो सकता। राजस्थान सहित कई राज्यों के पथ परिवहन निगम और इण्डियन एयरलाइन्स या एयर इण्डिया के उदाहरण हमारे सामने हैं। सब जानते हैं कि, छोटी सी एक टैक्सी चलाने वाला अपने परिवार को ही नहीं पालता, उससे चार कार खरीद लेता है। प्राइवेट एयरलाईन एक से चार हवाई जहाज कर लेती है। माल्या का उदाहरण सामने है। एयरलाइंस चलाई, बढ़ाई, बंद की और फिर रफूचक्कर। लेकिन सरकारी में सदैव वेतन-भत्तों के लाले पड़े रहते हैं। रेलवे के भी हाल किसी से छिपे नहीं है। रेल मंत्री सुरेश प्रभु की गारंटी सारा देश ले सकता है लेकिन क्या प्रभु अपने पूरे महकमे का जिम्मा ले सकते हैं? रेलवे का लक्ष्य मुनाफा कमाना कम और देश की जनता को यातायात का सस्ता साधन उपलब्ध कराना ज्यादा है। उसे प्राइवेट एयरलाईनों की तरह मजबूर यात्रियों की लूट का साधन बनाने से देश को शायद ही कोई लाभ हो। यदि ऐसा ही हुआ तब उसमें और आम जरुरत की वस्तुओं क ी कमी पर उनके भाव बढ़ाने वाले कालाबाजारियों में क्या फर्क रह जाएगा? तब वह भी मजबूरी का फायदा उठाना ही होगा। यदि ऐसा ही करना है, तब सरकार के उसे चलाने का भी क्या अर्थ है? उस सूरत में तो रेलवे का निजीकरण कर देना चाहिए। कम से कम जनता को यह तो नहीं लगे कि, उसी के वोटों से बनाई सरकार उसे लूट रही है?
द्दश1द्बठ्ठस्र.ष्द्धड्डह्लह्वह्म्1द्गस्रद्बञ्चद्गश्चड्डह्लह्म्द्बद्मड्ड.ष्शद्व