जगहंसाई

गोविन्द चतुर्वेदी

न्यायपालिका को सलाम ! फिर वह सर्वोच्च न्यायालय हो या उच्च न्यायालय । उत्तराखण्ड में सरकार के बहुमत के सवाल पर उनका निर्णय और भूमिका काबिले तारीफ है । इस निर्णय ने किसी एक राज्य या पार्टी की सरकार को नहीं बचाया, लोकतंत्र को बचाया है । न्यायालय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि, उसके लिए न केन्द्र की सरकार बड़ी है न राज्य की । और तो और इस मामले में एक बार तो उसने (नैनीताल हाईकोर्ट ने) देश के राष्ट्रपति तक के लिए कह दिया कि-वे भी गलत हो सकते हैं । बाद में जो हुआ, उससे सर्वोच्च न्यायालय में भी इस पर मोहर लगी । उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने वाली ‘मोदी सरकार’ और उस पर हस्ताक्षर करने वाले राष्ट्रपति भी गलत साबित हुए । सरकार को तो जैसे थूंक कर चाटना पड़ा । अपना ही आदेश वापस लेना पड़ा । वस्तुतः न्यायपालिका ने सभी को आईना दिखा दिया । और यह पहली बार नहीं हुआ । जब-जब संविधान पर हमले हुए हैं, वह उसके सामने ढाल बन कर खड़ी हुई है । धारा ३५६ के दुरूपयोग पर बोम्मई मामला तो इसका उदाहरण है ही । अफसोस इस बात का है, भारतीय जनता पार्टी जो जनसंघ के समय से ही इसके दुरूपयोग को लेकर कांग्रेस पर हमलावर रही, आज स्वयं उसका उपयोग कर रही है । लगभग ऐसी ही कहानी अरूणाचल की है । मणिपुर बच गया, अन्यथा धारा ३५६ का एक एपिसोड वहां भी खेलने की पूरी तैयारी हो गई थी ।

सर्वोच्च न्यायालय में बुधवार को जो हुआ, वह केवल राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार ही नहीं, उन तमाम राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए भी सबक है जो जब-तब लोकतंत्र का चीरहरण करने की तैयारी में रहते हैं । मामला इतना बड़ा होता ही नहीं यदि कांग्रेस अपना घर संभाल कर रखती । सबसे पहले बागी तो उसी के विधायक हुए । चाहे वह अरूणाचल हो या मणिपुर अथवा फिर उत्तराखण्ड । लोकतंत्र तो वहां भी कहां था । विधायकों की आवाज तो वहां भी नहीं सुनी गई । सुनी जाती तो शायद यह नौबत नहीं आती ।

और भारतीय जनता पार्टी । उसे हर जगह फटे में पांव देने की क्या जरूरत है? यदि वह ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का अपना सपना पूरा करना ही चाहती है तो उसका सही मंच चुनाव का मैदान है । मतदाता ने मोहर लगाई तो लोकसभा में उसे २८३ सीटें मिल गईं । कांग्रेस की ४४ रह गईं । बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखण्ड के नतीजे सबके सामने हैं । अगर अपना सपना पूरा करने के लिए वह किसी भी हद तक जाएगी तो यही होगा जो बुधवार को हुआ ! जगहंसाई । और पार्टी की ही नहीं, केन्द्र सरकार तक की । पार्टी पर हो रहे हमलों में प्रधानमंत्री भी घिर गए । आलोचकों को कहने का मौका मिल गया कि, उन्हें नौसिखिये सलाहकारों-रणनीतिकारों से बचना होगा । नहीं तो वे उनकी भी इज्जत धूल में मिला देंगे ।

राजनीति, राजनीति होती है । उसमें सबका चाल, चरित्र और चेहरा एक सा होता है । कहीं कोई फर्क नहीं होता । इससे पहले कि, देश के किसी अन्य राज्य में फिर उत्तराखण्ड़ जैसा राजनीतिक खेल खेला जाए, देश के तमाम राजनीतिक दलों को, चाहे वे सत्ता में हों या सत्ता से बाहर हों, कम से कम दो बातों पर सर्वसम्मति बना लेनी चाहिए । पहली, कोई भी सांसद, विधायक या अन्य निर्वाचित जनप्रतिनिधि यदि अपना मूल दल बदलता है ( अकेले या एक-तिहाई) तो उस सदन की उसकी सदस्यता स्वतः ही तुरंत प्रभाव से समाप्त हो जाएगी । उसे नई पार्टी से, नये सिरे से चुनाव लड़ना होगा । नम्बर दो संसद या विधानसभा में बहुमत का फैसला केवल और केवल सदन में ही होगा । ये दो कानून बन गए तो समझो लोकतंत्र बच गया । नहीं तो सुप्रीम कोर्ट को आए दिन ऐसे ही ‘अमृत मंथन’ करना पड़ेगा, लोकतंत्र को बचाने के लिए ।

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